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लापता लेडीज : ग्रामीण ब्याहताओं के व्यक्तित्व को तलाशती एक फिल्म

     देर रात सूरजमुखी गाँव में एक कच्चा मकान ठाट से जगमगा रहा है। परिवार जन में उत्साह है। घर को बाँस की चचरी से घेरा गया है। बाँस से बने फाटक पर दो केले के पेड़ों को आपस में गूँथ कर तोरण द्वार का रूप दिया हुआ है। दुल्हन को परिछने की बेला है। सास आग्रह करती है “ घूँघट उठाओ , फूल !” लेकिन यह क्या ! यह तो फूल है ही नहीं। हक्का - बक्का दूल्हा घुटनों में सिर छिपाए डाँट सुन रहा है और याद करने की कोशिश कर रहा है कि कैसे रात - अँधेरे वह ट्रेन से किसी दूसरे की नववधू को विदा करा लाया। वधू का भी पक्ष है , वह कैसे देखे कि दूल्हा उसका है कि नहीं ? -  दूल्हा भी नया , और घूँघट के भीतर से उसके जिन जूतों को देखते और उनका अनुगमन करते उसको अब चलना है , वे जूते भी नये ! दुल्हनों की अदला - बदली या स्त्रियों के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर भटक जाने को लेकर हिन्दी सिनेमा ने कई प्रयोग किए हैं लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म वह सामाजिक - सांस्कृतिक टिप्पणी ...

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